विकास



सुरंगों पर पहाड़, खतरे में जनता

-कृष्ण सिंह
यह लेख वर्ष 2012 में लिखा गया था। इस लेख में जो सवाल उठाए गए हैं वे वर्ष 2013 में भी उतने ही प्रासंगिक हैं। विकास के सवाल को लेकर जो बहस उत्तराखंड में लगातार चल रही है यह लेख उसी बहस को आगे बढ़ाता है।

मध्य हिमालय में बसे उत्तराखंड राज्य के पहाड़ों के भीतर और बाहर जबरदस्त हलचल है। कम-कम समय के अंतराल में लगातार होने वाली और पहले से ज्यादा विनाशकारी साबित हो रही आपदाएं-हादसे क्या वास्तव में प्राकृतिक हैं या विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों के असंतुलित और अंधाधुंध दोहन के चलते पहाड़ त्राहि-त्राहि कर रहा है? भूगर्भ वैज्ञानिकों के अनुसार हिमालय दुनिया का सबसे नया पहाड़ है और ग्रोइंग एज में है। भूकंप के लिहाज से उत्तराखंड का अधिकांश पहाड़ी क्षेत्र अत्यधिक खतरनाक जोन चार और पांच में आता है। राज्य में प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन, असंतुलित विकास और बड़े पैमाने पर बन रही बड़ी जल विद्युत परियोजनाओं के कारण पर्यावरण, जैव विविधता और पारिस्थितिक तंत्र पर काफी प्रतिकूल असर तो पड़ ही रहा है, साथ ही पहाड़ की समूची भौगोलिक संरचना के साथ-साथ जंगल, जमीन और स्थानीय लोगों का अस्तित्व खतरे में हैं। लेकिन  प्रकृति से मिलने वाली चेतावनियों के बावजूद सरकार बड़े पैमाने पर बनने वाली बिजली परियोजनाओं के खिलाफ कुछ भी सुनने को तैयार नहीं है। ``प्राकृतिक आपदाओं`` से जनता को राहत दिलाने के अपने अंदाज में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री भजन-कीर्तन करने की सलाह देकर अपने कर्तव्य पूरे कर लेते हैं।
दरअसल, 12 साल पहले अस्तित्व में आए तीन नए राज्यों उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ में प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक संसाधन हैं। यहां विकास और आर्थिक तरक्की के नाम पर अधिक से अधिक मुनाफा कमाने के लिए लूट मची है। इसी का परिणाम है कि उत्तराखंड में शहरों, नदियों के किनारे और अन्य स्थानों पर अनियंत्रित एवं गैरकानूनी तरीके से हुए निर्माण कार्यों तथा बिल्डरों की बड़े पैमाने पर सक्रियता के साथ-साथ अब बड़ी संख्या में बन रहे हाइड्रो पावर प्रोजेक्टों ने इस खतरे को बहुगणित कर दिया है। यहां की भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक स्थितियां मैदानी इलाकों से एकदम भिन्न हैं। विकास के संदर्भ में इसके इन पहलुओं को दरकिनार करना इस पहाड़ी राज्य के लिए भयावह और खतरनाक स्थितियां पैदा करना ही है। विकास हो और बिजली भी बने, इससे भला किसको एतराज हो सकता है, लेकिन हिमालयी राज्य होने के कारण इसका विकास का मॉडल कैसा हो, यह असल सवाल है।
सबसे खतरनाक पहलू यह है कि उत्तराखंड को ऊर्जा प्रदेश घोषित कर विकास के लिए हाइड्रो पावर प्रोजक्टों को ही एकमात्र अनिवार्य विकल्प मान लिया गया है। उत्तराखंड में साढ़े पांच सौ से छह सौ के करीब बांध बनने हैं। कुछ बन चुके हैं, काफी बन रहे हैं और बहुत सारे प्रस्तावित हैं। इनमें से करीब 1500 किलोमीटर की सुरंगें निकलेंगी। अनुमान के मुताबिक इससे 25 से तीस लाख आबादी सुरंगों के ऊपर होगी। पांच लाख से अधिक लोग विस्थापित होंगे। सुरंगें गांवों और शहरों के नीचे से जा रही हैं और जाएंगी। ये 27-28 किलोमीटर तक लंबी हैं। परियोजना स्थल पर नदी के नैसर्गिक प्रवाह को रोककर, जलाशय बनाकर, एकत्रित पानी को सुरंग (इन सुरंगों का आकार दिल्ली मेट्रो के टनल से कई गुना बड़ा है) में मोड़कर पावर टरबाइन वाले स्थान (जहां बिजली बनती है) पर छोड़ा जाता है। इन सुरंगों से पहाड़ और स्थानीय जनता खतरे और भय में है। चमोली जिले के चाई गांव और तपोवन-विष्णुगाड़ परियोजना की सुरंग से पानी रिसने के कारण पौराणिक शहर जोशीमठ के अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया है। मनेरी भाली-सेकेंड परियोजना का पानी भी रिस रहा है। सुरंगों से पानी रिस कर पहाड़ों के अंदर धीरे-धीऱे घुस रहा है, जो उन्हें अंदर से कच्चा कर रहा है। बागेश्वर के कपकोट क्षेत्र में 2010 में भूस्खलन से एक स्कूल में 18 बच्चे जिंदा दफन हो गए थे। जहां यह हादसा हुआ वहां पास में हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट की सुरंग थीं। हालांकि नदियों में बाढ़ का आना और भूस्खलन पहाड़ों के लिए नई बात नहीं है। लेकिन हाइड्रो पावर प्रोजेक्टों ने इससे होने वाले खतरे को कई गुना बढ़ा दिया है। इसका उदाहरण हाल ही में उत्तरकाशी में देख चुके हैं। जहां अस्सी गंगा घाटी में कंपनियों ने इलाके में डायनामाइट से विस्फोट किए। बड़े पैमाने पर मलबा पानी में डाला, जिससे नदी का तल ऊंचा उठ गया। बादल फटने के बाद आकस्मिक बाढ़ ने पहले नदी में झील बनाई और फिर झील टूटी तो पानी के वेग ने भारी तबाही मचाई। साथ ही नदी के अतितीव्र वेग ने बांधों के निर्माणस्थल को तोड़ दिया जिससे नुकसान कहीं गुना ज्यादा हुआ। उत्तरकाशी का इलाका भूकंप और भूस्खलन की दृष्टि से वैसे भी काफी संवदेनशील है। फिर भी यहां जल बिजली परियोजनाओं को मंजूरी दी गई है। उत्तकाशी की घटना के संदर्भ में विख्यात भू वैज्ञानिक केएस वल्दिया ने हाल ही में एक इंटरव्यू में कहा कि आकस्मिक बाढ़ पूरी तरह से मानव निर्मित है।
उत्तराखंड को ऊर्जा प्रदेश बनाने की गुलाबी तस्वीर ऊपर से भले ही अच्छी लगती हो, पर वास्तविक धरातल पर यह कितनी भयावह है इसका सबसे बड़ा उदाहरण टिहरी बांध है। इससे 2400 मेगावाट बिजली बनने की बात कही गई थी, लेकिन इससे तीन सौ से लेकर चार सौ मेगावाट बिजली का ही उत्पादन हो रहा है। मई में संसद में इसको लेकर सवाल भी उठ चुका है। राज्य में जितनी भी जल बिजली परियोजनाएं हैं उनमें बिजली अपने लक्ष्य से बहुत कम बन रही है। सरकारी उपक्रम उत्तराखंड जल विद्युत निगम (यूजेवीएन) के आंकड़े इसके गवाह हैं। एमबी स्टेज-टू परियोजना 304 मेगावाट क्षमता वाली है। इसकी एक साल की क्षमता 3648 मेगावाट है। पर यूजेवीएन ने वित्तीय वर्ष 2012-13 के लिए इससे बिजली उत्पादन का लक्ष्य 13 सौ मेगावाट रखा है। जो कुल क्षमता का 40 फीसदी से भी कम है। इसी तरह चिबरो पावर स्टेशन की सालाना क्षमता 2880 मेगावाट है पर वार्षिक लक्ष्य निर्धारित किया गया है 762 मेगावाट का। ऐसे बहुत सारे उदाहरण हैं। असल में हिलायली क्षेत्र में बांधों के जलाशयों में गाद का भरना एक गंभीर समस्या है। डाउन टु अर्थ पत्रिका की रिपोर्ट के अनुसार ``एक जलाशय की अनुमानित उम्र दो सौ साल होती है। भाखड़ा बांध को बने 50 साल हुए हैं लेकिन वह अपनी जल धारण की 50 फीसदी क्षमता खो चुका है।`` हिमालयी नदियां अपने चरित्र के मुताबिक अपने साथ भारी मात्रा में गाद लाती हैं जिससे बिजली उत्पादन में कमी आ जाती है और बांध समय से पूर्व अपनी उत्पादकता खो देता है।
हाइड्रो पावर प्रोजेक्टों के संदर्भ में सीएजी की रिपोर्ट में कहा गया है कि उत्तराखंड सरकार ने पर्यावरणीय चिंताओं को पूरी तरह से अनदेखा किया है और प्रोजेक्ट डेवलेपर्स ने सिस्टेमेटिक त्रुटियों का इस्तेमाल अपने हित में किया। मंजूरी मिलने के बाद 85 प्रतिशत प्रोजेक्टों में बिजली उत्पादन क्षमता में 25 प्रतिशत से 329 फीसदी तक फेरबदल किया गया। सीएजी ने यूजेवीएन के प्री फिजबिलइटि स्टडी (पूर्व व्यवहार्यता अध्ययन) की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठाया है।
दरअसल, नई पावर पॉलिसी (पीपीपी) में निजी भागीदारी के तहत निजी कंपनियां 85 प्रतिशत बिजली बेच सकती हैं और 12 फीसदी उन्हें राज्य सरकार को देनी होगी। इससे हो यह रहा है निजी कंपनियां बहुत कम समय में ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना चाहती हैं और इसके लिए वे नदियों और पहाड़ों का अनाप-शनाप तरीके से दोहन कर ही हैं।
एक और बात, सरकार इन परियोजनाओं को रन ऑफ द रीवर कह रही है। परन्तु विश्व बांध आयोग के मानकों के पैमाने से उत्तराखंड में बन रहे अधिकांश बांध रन ऑफ द रीवर (यानी छोटे बांध) की श्रेणी में नहीं आते। छोटे बांधों की ऊंचाई 15 मीटर से कम होनी चाहिए। उदाहरण के लिए पाला-मनेरी पोजेक्ट को रन ऑफ द रीवर कहा जा रहा है, पर इसकी ऊंचाई 74 मीटर है। ऐसे बहुत सारे उदाहरण हैं। जल धारण क्षमता और डिस्चार्ड के लिहाज से भी यहां के अधिकतर प्रोजेक्ट बड़े बांधों की श्रेणी में ही आते हैं। रन ऑर द रीवर परियोजना में नदी की मूल धारा में वांछित प्रवाह बना रहना चाहिए। विश्व मानकों के तहत हर हाल में नदी का 25 फीसदी जल उसके नैसर्गिक बहाव के लिए छोड़ा जाना चाहिए। पर उत्तराखंड के संदर्भ में स्वयं सीएजी की रिपोर्ट कहती है कि निजी कंपनियों को नदी का 90 फीसदी तक पानी पावर टरबाइन में मोड़ने की छूट दी गई और सिर्फ दस प्रतिशत पानी ही नदी के नैसर्गिक बहाव के लिए छोड़ा गया। अगर पावर टरबाइन से कई किलोमीटर पहले नदी के प्रवाह का रोका जाता है और सुरंगों में धकेल दिया जाता है तो वह रन ऑफ द रीवर परियोजना कैसे हुई? नदी को रोकने के बाद आगे कई किलोमीटर बाद जब टरबाइन से पानी छोड़ा जाएगा तो उसके बीच के हिस्से में नदी नाममात्र की रह जाएगी और उसके आसपास पर्यावरण और जीवन बुरी तरह से प्रभावित होगा।  
ये बड़े हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट इस हिमालयी राज्य के लिए कितने घातक हैं इस बारे में भारतीय वन्य जीव संस्थान की रिपोर्ट कहती है कि यदि सभी प्रोजेक्ट कार्यान्वित किए गए तो पूरी अलकनंदाभागीरथी घाटियों में नदियों का 1211 किलोमीटर का जो लंबा फैलाव है उसमें 526.8 किलोमीटर तक का क्षेत्र प्रभावित होगा। नदियों का कम से कम 162.6 किलोमीटर तक का लंबा क्षेत्र डूब जाएगा। भागीरथी 59 प्रतिशत और अलकनंदा 61 फीसदी तक सूख जाएगी। साथ ही जलीय जैव विविधता और उसके जीव जन्तुओं के लिए भी बड़ा खतरा होगा।
हिमालयी क्षेत्र पर पहले से ही ग्लोबल वार्मिंग, मौसम के बदलते मिजाज और जैव विविधता तथा पारिस्थितक तंत्र पर पड़ रहे प्रतिकूल प्रभाव से जूझ रहा है। ऐसे में प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन इस खतरे को किस स्तर तक ले जाएगा इसे आसानी से समझा जा सकता है। यह सिर्फ गंगा और अन्य नदियों के तिल-तिल कर मरने की गाथा ही नहीं होगी बल्कि इससे पहाड़ों की अच्छी खासी आबादी के साथ-साथ मैदानी इलाकों की एक बड़ी जनसंख्या इससे बुरी तरह से प्रभावित होगी।