जल-परियोजनाएं


क्या उत्तराखंड कोई लेबोरेटरी है
शिव प्रसाद जोशी उठा रहे हैं कुछ ज़रूरी सवालात -
 गंगा की धारा और लोगों की ज़िंदगियां 

-शिवप्रसाद जोशी


गंगा के उद्गम गोमुख और गंगोत्री से कुछ किलोमीटर नीचे उत्तरकाशी की तरफ़ यानी डाउनस्ट्रीम, तीन अहम जलबिजली परियोजनाएं थीं. केंद्र की लोहारी नागपाला और राज्य सरकार की पालामनेरी और भैरोंघाटी. लोहारी नागपाला पर करीब 40 फीसदी काम हो चुका था. बाक़ी दो परियोजनाओं का ऑडिट किया जा चुका था. स्थलीय परीक्षण भी हो चुका था. क़रीब एक हज़ार मेगावॉट क्षमता वाली ये तीनों परियोजनाएं अब बंद हैं. बताया जाता है कि अकेले लोहारी नागपाला में 600 करोड़ रुपए खर्च हो चुके थे.

लोहारी नागपाला में अगर आप आज जाएं तो आपको वहां देखकर लगेगा कि क्या कोई पहाड़ को नोचखसोट कर ले गया है. जैसे किसी ने जंगल में डाका डालकर कुछ पहाड़ कुछ पत्थर कुछ नदी कुछ खेत कुछ ज़मीन चुरा ली हो. सबकुछ बिखरा हुआ सा है. धूल और गुबार है और परियोजना का कबाड़ इधरउधर बिखरा पड़ा है. पहाड़ खोदकर बनाई सुरंगे अब ख़तरा बन गई हैं. गंगोत्री घाटी में भूधंसाव और भूस्खलन की वारदात बढ़ गई हैं. कुदरत का बुरा हाल तो हुआ ही लोग भी बदहाल हुए हैं. पहले जब यहां परियोजनाएं लाई जा रहीं थीं तो स्थानीय लोगों ने भारी विरोध किया था( उस समय उनका साथ देने गिनेचुने ही थे) लेकिन इस विरोध को भी जैसा कि होता है येनकेन प्रकारेण शांत कर दिया गया. रोज़गार और तरक्की के वादे किए गए. ठेकेदारी चमक उठी. कमोबेश यही स्थिति अलकनंदा घाटी में भी हुई.

फिर गंगा की अविरलता का किस्सा उठा. पर्यावरण और विकास के आगे आस्था के सवाल आ गए. और फिर गंगा की स्वच्छता पवित्रता और निर्बाध जल धारा की गेरुआ लड़ाई शुरू हुई. अनशन हुए. लोहारी नागपाला 2008 में बंद कर दी गई और फिर 2010 में पाला मनेरी और भैरोंघाटी का काम जहां का तहां रोक दिया गया. लोग एक बार फिर स्तब्ध और बेचैन रह गए.

उनके खेत जा चुके थे. ज़मीनें जा चुकी थीं. पेड़ कट चुके थे और नदी कटान का शिकार हो चुकी थी. मशीनों और कलपुर्जो का जखीरा जो पहाड़ में धंसा था वैसा ही रह गया. अब मानो ये एक झूलती हुई सी हालत है. इधर जब गंगा को लेकर आंदोलन हो रहे हैं उसमें एक बहस विकास के इस मॉडल को लेकर भी जुड़ गई है. आस्था बनाम पर्यावरण के तर्क विद्रूप की तरह हमारे सामने हैं. और विकास के लंपटीकरण के मेल से अब ये जनविरोधी सियासत का त्रिकोण गठित हो गया है. स्थानीय संसाधनों, उनसे जुड़ी जन आकांक्षाओं और संघर्षों पर इस त्रिकोण की नोकें धंस गई हैं. और उधर आंदोलनों का स्वरूप क्या से क्या हुआ जा रहा है. अपने जंगल पहाड़ नदी बचाने की वास्तविक लड़ाइयों की अनदेखी की जा रही है.

यह लेख Kabadkhana.blogspot.com  से साभार  लिया गया है।