(patrakar Praxis से साभार )
समकालीन हिंदी कविता/साहित्य जगत पर जब चर्चा करनी होगी तो कवि मंगलेश डबराल के नाम के बगैर यह अधूरी रह जायेगी. साथ ही हिंदी पत्रकारिता के पिछले कुछ दशकों का अगर उसके उतार-चढ़ावों के साथ रेखाचित्र खींचा जाएगा तो भी इसके चढ़ाव की रेखाओं में मंगलेश जी की कलम की स्याही को अलग ही पहचाना जा सकेगा. यहाँ हमारे सहयोगी अंकित फ़्रांसिस ने मंगलेश जी से उनके गृहराज्य उत्तराखंड, समकालीन साहित्य और देश-दुनिया के हालातों पर तफसील से बातचीत की है. मूलतः यह साक्षात्कार साप्ताहिक अखबार 'दि संडे पोस्ट' के एक विशेषांक के लिए लिया गया था. वहां इसका संपादित अंश प्रकाशित हुआ था. praxis में हम यह पूरा साक्षात्कार दे रहे हैं. 'दि संडे पोस्ट' का आभार...
-संपादक,praxis
"...मैं
सोचता रहता हूं अक्सर पहाड़ के बारे में। मैं खुद को इस तरह देखता हूं कि जैसे
पहाड़ से एक पत्थर फिसलता है और जहां तक बहाव होता है वो वहां तक आ जाता है। मैं
भी पहाड़ से फिसल कर इस तरह आ गया मैदान में। मैं भी वही पत्थर हूं जो कि निकला है
पहाड़ से और आज भी पहाड़ का ही है। जहां से मैं निकला हूं जरूर वहां पहाड़ में आज भी एक खाली जगह होगी।.."
उत्तराखंड से बात शुरू
करते हैं,
जहाँ से आप आते हैं. नए राज्य गठन को इन बारह सालों बाद किस तरह
देखते हैं आप?
मंगलेश- मेरा
ये मानना है कि जब तक हम उत्तर प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्र की तरह माने जाते थे तो
हमारी एक अलग पहचान थी और वो थी पर्वतीय क्षेत्र की पहचान। उत्तराखंड के एक अलग
राज्य बन जाने से पहली दुर्घटना ये हुई है कि वो अब ‘पर्वतीय
राज्य’ नहीं रह गया है। जनसँख्या आधारित नए परिसीमन ने
पहाड़ी क्षेत्र की अस्मिता पूरी तरह ही नष्ट कर दी है। पहाड़ी इलाकों से उत्तराखंड
के तराई क्षेत्र या उधमसिंह नगर और हरिद्वार जैसे राज्य में दो अनचाहे मैदानी
जिलों में जो पलायन हुआ है उसने एक तरफ तो गाँवों को जनसँख्या विहीन किया है वहीँ
दूसरी तरफ इन जगहों का जनसँख्या घनत्व बढ़ाया है। वहीँ अन्य मैदानी इलाकों से भी
उत्तराखंड के मैदानी इलाके की तरफ जो लोग आये हैं उनसे भी इन इलाकों की जनसँख्या
बढ़ी है। इस पर जनसँख्या आधारित परिसीमन ने फिर से पहाड़ की राजनीतिक स्थिति
उत्तरप्रदेश वाली ही कर दी है।
आप पहाड़ के गांवों में जाकर देखिए कि गांव के गांव खाली हैं। मकानों पर ताले लटके हुए हैं। लोग शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं चूंकि वहां उनके लिए कुछ है ही नहीं। हमारी सरकार की उपेक्षा के चलते खेती चौपट हो गई है। इन्होंने न तो खेती के तरीके बदले और न ही पहाड़ के किसानों को किसी तरह के उन्नत बीज दिए। आज तक किसान वही पुरातन हल और बैल के सहारे काम चला रहे हैं। इसी के चलते किसानों ने खेती छोड़ दी और सभी शहरों की ओर भागने लगे। या फिर दिया तो मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना), जिसमें किसानी छोड़ों और मजदूर बन जाओ। आपने इससे एक समय अच्छे से खेती कर गुजर-बसर करने वाले किसानों को एक झटके में दिहाड़ी मजदूरों में बदल दिया। हमारी परंपरागत जमीन बंजर होती जा रही है। संस्कृति पर बात करें तो उत्तराखंड की संस्कृति तेजी से विलुप्त हो रही है। हमारे लोकगीत नष्ट होते जा रहे हैं लेकिन इस ओर किसी सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया। आपके सामने एक पूरी ऐसी पीढ़ी है जो पहाड़ से पलायन कर मैदान में आ चुकी है। जिसका पहाड़ से संबंध अब खत्म होता जा रहा है। मैदान में आकर पहाड़ी भी मैदानी होते जा रहे हैं।
आप पहाड़ के गांवों में जाकर देखिए कि गांव के गांव खाली हैं। मकानों पर ताले लटके हुए हैं। लोग शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं चूंकि वहां उनके लिए कुछ है ही नहीं। हमारी सरकार की उपेक्षा के चलते खेती चौपट हो गई है। इन्होंने न तो खेती के तरीके बदले और न ही पहाड़ के किसानों को किसी तरह के उन्नत बीज दिए। आज तक किसान वही पुरातन हल और बैल के सहारे काम चला रहे हैं। इसी के चलते किसानों ने खेती छोड़ दी और सभी शहरों की ओर भागने लगे। या फिर दिया तो मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना), जिसमें किसानी छोड़ों और मजदूर बन जाओ। आपने इससे एक समय अच्छे से खेती कर गुजर-बसर करने वाले किसानों को एक झटके में दिहाड़ी मजदूरों में बदल दिया। हमारी परंपरागत जमीन बंजर होती जा रही है। संस्कृति पर बात करें तो उत्तराखंड की संस्कृति तेजी से विलुप्त हो रही है। हमारे लोकगीत नष्ट होते जा रहे हैं लेकिन इस ओर किसी सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया। आपके सामने एक पूरी ऐसी पीढ़ी है जो पहाड़ से पलायन कर मैदान में आ चुकी है। जिसका पहाड़ से संबंध अब खत्म होता जा रहा है। मैदान में आकर पहाड़ी भी मैदानी होते जा रहे हैं।
क्या आप भी पहाड़ी बनाम मैदानी
वाली लड़ाई की आरे इशारा कर रहे हैं?
मंगलेश- नहीं मैं यहां स्पष्ट कर
देना चाहता हूं कि मैं कोई पहाड़वादी नहीं हूं। पहाड़वाद से मुझे भी घृणा है लेकिन
मुझे मेरी पहाड़ी पहचान से बेहद प्रेम है। पहाड़ी पहचान और पहाड़वाद दोनों को अलग
करके समझना बहुत जरूरी है। पहाडि़यों में मैदानियों के प्रति किसी तरह के
पूर्वाग्रह का होना भी बहुत गलत है। पहाड़ में मैदानियों का हमेशा स्वागत होना
चाहिए। पिछले दिनों से उत्तराखंड में भी जो बाहरी लोगों को भगाइये वाली प्रवृत्ति
उभरकर आई है इसकी मैं घोर निंदा करता हूं। भरत झुनझुनवाला के साथ जिस तरह का
व्यवहार हुआ पिछले दिनों वो भी निंदनीय है। लेकिन सरकार को चाहिए था कि परिसीमन को
इस तरह किया जाता कि हर क्षेत्र के लोगों का नेतृत्व बना रहता। इसे क्षेत्रफल के
आधार पर किया जाता तो बेहतर रहता। क्योंकि पहाड़ में अपने विशेष भूगोल के चलते हमेशा
से कम आबादी है जो कि इन नीतियों के चलते अब खत्म होने की कगार पर है। क्षेत्रफल
के हिसाब से परिसीमन क्यों नहीं किया गया इस पर भी आगे गंभीरता से विचार करने की
जरूरत है।
पलायन उत्तराखंड गठन के
बाद भी सबसे बड़ी समस्या बनी हुई है। उधर सरकार पलायन को विकास की प्रक्रिया का
तर्क बता खारिज कर देती है? कहां गलती हो रही है?
मंगलेश- देखिए दिक्कत ये है कि
विकास का जो मॉडल अप्लाई किया जा रहा है उसमें पहाड़ और मैदान को एक मान लिया गया
है। जिस मॉडल से देहरादून में विकास का सपना देखा जा रहा है उसी सपने को पहाड़ के
सुदूर गांवों पर भी लाद दिया जा रहा है। हमने स्थानीय मॉडल विकसित ही नहीं किए
हैं। आप टिहरी में इतना बड़ा बांध बनाते हैं जो कि पूरे क्षेत्र को ही निगलने का
सबब बन सकता है। क्यों आप छोटे बांध बनाने पर राजी नहीं हैं? बहुत सी ऐसी गाड़ हैं जिन
पर सफलता से छोटे बांध बना सकते हैं। लेकिन चूंकि ये परियोजनाए विशाल नहीं होंगी
तो आप और बनाने वाली कंपनियों को मुनाफखोरी का मौका नहीं मिल पायेगा। इसी के चलते
न तो पॉलिटिकल पार्टी और न ही कंस्ट्रक्शन कंपनियों की इसमें रुचि है। ये कंपनियां
चाहती हैं कि किसी एक जगह पर बड़ी परियोजना बने जिससे उनकी बचत ज्यादा हो और काम
कम हो।
इन्हीं सब नीतियों के चलते उत्तराखंड के कई प्राकृतिक
संसाधन बेकार जा रहे हैं। सरकार खामोश है क्योंकि अगर वो बोलती है तो कई बड़ी निजी
कंपनियों के इनसे हित प्रभावित होते हैं। दरअसल इन राजनीतिज्ञों और कंपनियों के
हित भी आपस में जुड़े हुए हैं। हमें ये समझना चाहिए कि ये जो तथाकथित विकास है वो
किस के पक्ष में हो रहा है। आप मुट्ठी भर लोगों को दिन पर दिन अमीर बना कर आम
आदमियों का विकास नहीं कर सकते।
सवाल ये है कि क्या पलायन कर रहे आदमी तक विकास पहुंच रहा
है? मैं आपको बता दूं कि
पलायित आदमी का विकास नहीं हो रहा है उल्टे उनकी छोड़ी जगहों पर बाहर के लोग
जमीनें खरीद रहे हैं। आप पिछले कुछ सालों के आंकड़े देंखे तो पता चलेगा कि पहाड़
के पहाड़ खरीदे-बेचे जा रहे हैं। और सिर्फ पहाड़ का ही ये हाल नहीं है यहां से
बाहर झांकिए तो पता चलता है कि देश में मुट्ठी भर लोगों तक ही विकास
सिमटता जा रहा है।
इसी के चलते उत्तराखंड आज एक पहाड़ी राज्य नहीं रह गया है।
जबकि आप देखिए बराबर में ही हिमाचल है और पंजाब से अलग होने के बाद उसने अपनी
पहाड़ी राज्य की पहचान को बनाए रखा है। हिमाचल आज इसी वजह से समृद्धि की ओर बढ़
रहा है क्योंकि उसने सबसे पहले अपने मूल नागरिकों की ओर ध्यान दिया। उत्तराखंड की
असफलता का प्रमुख कारण अब तक यह रहा है कि जिन लोगों ने मतलब कि उत्तराखंड संघर्ष
वाहिनी और उत्तराखंड क्रांति दल ने राज्य आंदोलन में बड़ी भूमिका निभाई वो राज्य
विभाजन के बाद गठन में कोई भूमिका नहीं निभा सके।
आज उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी तो हाशिए पर है और उक्रांद का
हाल किसी से छिपा नहीं है। तमाम उत्तराखंड के बुद्धिजीवी या आंदोलनकारी जिनकी वजह
से आंदोलन मुमकिन हुआ उन्हें आज कोई पूछता नहीं। इन्हीं में से एक ग्रुप ने
उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी बनाई है लेकिन सब इतने अलग-थलग है कि बदलाव संभव नहीं
हो पा रहा है। दरअसल जो सारी बुराईयां उस समाज में व्याप्त थी वो इन दलों में भी आ
गई और इनकी ये गत हुई।
इसका सबसे बड़ा नुकसान ये हुआ कि पिछले बारह सालों में जो
भी सरकारें आईं भाजपा या कांग्रेस की उन्होंने अपनी मर्जी से बिना किसी डर के काम
किया। आप देखिए कि पिछले बारह सालों में धार्मिक पर्यटन के अलावा किसी भी और चीज
को बढ़ावा नहीं दिया गया है। उत्तराखंड में सिर्फ सरकार के चमचे अफसरों की पौबारह
रही है और आज भी है।
अफसरशाही को बनाए रखने के लिए ही आज भी राजधानी देहरादून
में बनी हुई है। बावजूद इसके कि देहरादून का हाल बहुत ही खराब हो चुका है। आज
देहरादून में अथाह भीड़ है, पांव रखने तक की जगह नहीं
है। आज देहरादून इतना फैल गया है जो कि कल्पना से परे है। आप सबकुछ केन्द्रीकृत
करते जा रहे हैं। इसी के चलते उत्तराखंड की संस्कृति को भारी नुकसान हुआ है। इसकी
चिंता किसी को नहीं है। किसी ने भी कोई ऐसी योजना नहीं बनाई जिससे उत्तराखंड के
संस्कृतिकर्मी, बुद्धिजीवी, रंगकर्मी, लेखक, कवि, शिल्पकार, चित्रकार या वहां के जागर
लगाने वाले और वहां के ढोल-नगाड़े बजाने वाले को कोई फायदा हुआ हो।
आप देखिए कि उत्तराखंड साहित्य परिषद ही कितने समय तक वहां
निष्क्रिय रही उसका कोई अस्तित्व ही नहीं था। आज भी उसकी सक्रियता नाम मात्र ही ही
दिखाई पड़ती है। सब मिला के बारह वर्षों का लेखा-जोखा यही है। अब बताइए कि राज्य
बनाने से ही क्या हासिल हुआ?
आपको आपत्ति किन पर है? बाहर से जो लोग आकर
उत्तराखंड में बस रहे हैं उनपर या पहाड़ से जो लोग मैदान में बस रहे हैं उन पर?
मंगलेश- आज पहाड़ और राज्य के
बाहर के दोनों लोग उत्तराखंड के मैदानी इलाकों की भीड़ बढ़ा रहे हैं। दरअसल
उत्तराखंड बनने के बाद भी राज्य में पहाड़ी और मैदानी संस्कृति में बड़ा अंतर था।
आज चूंकि पहाड़ी लोग मैदान की तरफ भाग रहे हैं तो पहाड़ी संस्कृति पर संकट व्याप्त
हो गया है। दूसरी तरफ खाली हो रहे पहाड़ों को मैदानी लोग खरीदते जा रहे हैं।
आप हाल-फिलहाल
में खुद को पहाड़ से किस तरह जोड़ कर रख पाते हैं?
मंगलेश- इस तरह जोड़ कर रख पाता
हूं कि मैं सोचता रहता हूं अक्सर पहाड़ के बारे में। मैं खुद को इस तरह देखता हूं
कि जैसे पहाड़ से एक पत्थर फिसलता है और जहां तक बहाव होता है वो वहां तक आ जाता
है। मैं भी पहाड़ से फिसल कर इस तरह आ गया मैदान में। मैं भी वही पत्थर हूं जो कि
निकला है पहाड़ से और आज भी पहाड़ का ही है। जहां से मैं निकला हूं जरूर आज भी
वहां पहाड़ में एक खाली जगह होगी।
कभी वो खाली जगह दोबारा
भरने का इरादा है?
मंगलेश- देखिए मेरे जीवन में
काफी संघर्ष रहा खासकर अजीविका के लिए। मेरी शिक्षा भी अधूरी ही छूट गई थी। तब तक
मैं मार्क्सवाद के भी संपर्क में आ गया था। मार्क्सवाद का अध्ययन करने से एक ये
गलतफहमी भी हो जाती है कि भई अब क्या पढ़ेंगे, अब तो हमें सबकुछ आता है, हम इस दुनिया में क्या और
क्यों होता है सब जान चुके हैं तो क्या फायदा पढ़ने का। इसी के चलते पढ़ाई भी छूट
गई। इसी कारण अजीविका के लिए पत्रकारिता भी करनी पड़ी। बहरहाल उम्मीद करता हूं कि
मैं वापिस लौटूंगा।
आपने मार्क्सवाद का जिक्र
किया तो पिछले दस सालों में खासकर कुछ अमेरिकी चिंतक इस दौर को ‘एंड ऑफ़ आइडियोलॉजी’ का दौर कहकर प्रचारित कर
रहे हैं। इसे किस तरह देखते हैं?
मंगलेश- ये जो विचारधाराओं के
फ्रेम टूटने की बात है तो हां बाजार के बढ़ते प्रभाव के कारण ऐसा हुआ है और पिछले
कई वर्षों से कुछ अमेरिकी चिंतक ये एंड ऑफ़ आइडियोलॉजी वाली बात रट रहे हैं। दरअसल
वो लोग सिर्फ आइडियोलॉजी ही नहीं इसे एंड आॅफ हिस्ट्री और एंड ऑफ़ सिविलाइजेशन भी
कह रहे हैं। उनका कहना है कि आने वाले समय में सिर्फ एक ही सभ्यता बची रहेगी।
खासकर सोवियत संघ के पतन के बाद से यह बात और जोर-शोर से कही जाने लगी कि अमेरिका
ही सबकुछ है और वही बचा रहेगा।
लेकिन अमेरिकी विचारधारा क्या है वो सब जानते है कि वो
बाजार है। दरअसल आर्थिक नवउदारवाद ही इन सब चीजों को अपने अनुसार नियंत्रित कर रहा
है। यही बाजार को चला रहा है, सत्ता परिवर्तन कर रहा है, सरकारें चला रहा है, बगावत कर रहा है। यही यह
प्रचारित कर रहा है कि विचारधाराएं समाप्त हो गई हैं। जब तक सोवियत संघ था चाहे
जैसा भी था बचा-कुचा, टूटा-फूटा तब तक यह बात
कहने का साहस उसमे नहीं था। तब दुनिया बइपोलर थी और अमेरिका अकेली शक्ति नहीं था।
जिस दिन सोवियत संघ का पतन हुआ उसी दिन हेनरी किसिंगर का एक लेख बड़े जोर-शोर से
छपा। उस लेख में था कि जिस चर्च का निर्माण अमेरिका कर रहा था वो अब पूरा हो चुका
है और अब पूरी दुनिया को इसमें आकर सिर झुकाना चाहिए। सिर्फ एक ध्रुवीय हो जाने के
कारण ही वो एक विचारधारा इतनी हावी है।
लेकिन आप देखिए कि विचारधारा का अंत तो नहीं हुआ इसका
उदाहरण लैटिन अमेरिका है। लैटिन अमेरिका के बारह देश इस समय वामपंथी हैं। यूरोप के
लिथुवानिया और लातविया में अभी-अभी कम्युनिस्टों की जीत हुई है। यूरोप में सोशल
डेमोक्रेट्स चुन कर आए हैं बड़े पैमाने पर। दूसरी तरफ यूरोप में पूंजीवाद जिस
अभूतपूर्व संकट से गुजर रहा है वो इतना भीषण है कि लोग उससे छुटकारा पाने के लिए
भी वामपंथ की ओर आ रहे हैं। आक्युपाई वॉल स्ट्रीट आंदोलन की राजनीति हांलाकि बहुत
डिफाइन नहीं है लेकिन अपने लक्षणों में वो भी एक वामपंथी आंदोलन ही है। चाहे ये
कम्युनिस्ट आंदोलन नहीं है।
अगर वो लोग कह रहे हैं कि ये एंड ऑफ़ आइडियोलॉजी है तो हमें
नारा देना चाहिए ‘बैक टू आइडियोलॉजी’। और मै तो कहना चाहूंगा
कि स्थिति जैसी है वैसे में तो ‘वी मस्ट गो टू आइडियोलॉजी’ से ही हमें ताकत मिलेगी और इसी से हम अपना स्वप्न फिर से पा सकते हैं। आप
ये समझिए कि ये सच है कि समाजवादी सत्ताएं भी भ्रष्ट हो गई थीं। माना कि सोवियत
संघ भी भ्रष्ट हो गया होगा लेकिन सत्ताओं के भ्रष्ट हो जाने से आइडियोलॉजी भ्रष्ट
नहीं हो जाती। आज भी मार्क्सवाद ने मनुष्यों के जितने सवालों का जवाब दिया है उतने
जवाब कोई आइडियोलॉजी नहीं दे पायी है। तमाम उत्तराधुनिकता फेल हो गई है।
उत्तराधुनिकतावाद का भी वही हिस्सा बचा रह गया जो वामपंथ के ज्यादा करीब था।
उत्तराधुनिकतावाद ने ताकत की जो चीड़-फाड़ और विवेचना की है वो वामपंथी विवेचना ही
है। वामपंथ की बहुत सी चीजे आपको उत्तरआधुनिकतावाद में मिलती हैं। मैं ये मानता
हूं कि मार्क्सवादी विचारधारा की प्रासंगिकता हमेशा बनी रहेगी क्योंकि इसमें कुछ
ऐसी चीजे हैं जैसे कि आर्थिक संबंध ही सामाजिक संबंधों का डिफाइन करते हैं और मानव
संबंधों की भी राजनीति होती है। इससे बड़ा कोई सूत्र नहीं है किसी भी विचारधारा
में।
उत्तराखंड के संदर्भ में
वामपंथी आंदोलन की क्या भूमिका रही है?
मंगलेश- उत्तराखंड में
कम्युनिस्ट पार्टी का गठन बहुत पहले ही हो चुका था और प्रजामंडल आंदोलन में बहुत
से कम्युनिस्ट भी शामिल थे। तेलाड़ी में भी श्रीदेव सुमन और हमारे एक कम्युनिस्ट
साथी शहीद हुए थे फिलहाल नाम याद नहीं आ रहा इसके लिए मुझे माफ करें। तो काफी समय
से वामपंथी आंदोलन वहां मौजूद रहा है। मेरे खुद के दो जीजा वहां वामपंथी आंदोलन
में शामिल रहे हैं। उत्तरकाशी और टिहरी में इन लोगों ने ही आंदोलन की नींव रखी।
लेकिन जैसी हालत बाकी देश में है कम्युनिस्ट पार्टियों की वैसी ही यहां भी है।
कम्युनिस्टों की इस हालत
की प्रमुख वजह क्या रही हैं?
मंगलेश- उन्होंने समाजवाद का
स्वप्न देखना छोड़ दिया है। अब रह गया है कि कुछ सीट जीत लीजिए जब चुनाव आएं तो या
किसान आंदोलन चलाइए। लेकिन जो मूलभूत समस्या है वो यही है कि लोग जमीन ही छोड़
चुके हैं। किसानी में ही किसी की कोई दिलचस्पी रही नहीं। ऐसे में सारा किसान
आंदोलन किसानों के विस्थापन और पुनर्वास तक ही सिमट कर रह गया है। बस इन्हीं जगहों
पर कम्युनिस्ट पार्टियां उत्तराखंड और पूरे देश में भी काम कर रही हैं। उत्तराखंड
में तराई के क्षेत्रों में सितारगंज के पास पुनर्वास के लिए और भी जहां जमीन खतरे
में हैं वहां पार्टी काम कर रही है। लेकिन जाहिर है कि जो राजनीति आ गई है वही
उनपर भी हावी है। हमारे यहां जातिवाद बहुत प्रबल है अभी तक आप ब्राह्मण और राजपूत
से ही बाहर नहीं आ पाए। सभी राजनीतिक पार्टियों ने इसे बढ़ावा दिया है।
क्या कम्युनिस्ट पार्टियों
में भी जाति समस्या है?
मंगलेश- नहीं कम्युनिस्ट पार्टी
में तो मुझे कहीं नहीं दिखाई पड़ा। हां कांग्रेस और भाजपा ने इसे खूब बढ़ावा दिया
है। यही एक ऐसा मुद्दा है जिसे कम्युनिस्ट पार्टियां अभी तक नहीं सुलझा पायी हैं।
किसान खेती छोड़ रहे हैं तो बुनियादी विरोधभास खत्म होता जा रहा तो ऐसे में आप
क्या आंदोलन चलायेंगे। आप आदिवासियों को साथ लेकर आंदोलन चला सकते थे लेकिन उनमें
भी उस चेतना का अभाव है अभी। पिछले दिनों इन सभी कम्युनिस्ट पार्टियों ने मिलकर
चुनाव लड़ने की बात की और टिहरी उपचुनाव साथ ही लड़ा। हिमाचल में भी यही प्रयोग
अपनाया जा रहा है। शिमला में अभी दो प्रशानिक सीटें कम्युनिस्ट पार्टियों के पास
है। इस तरह की घटनाएं उम्मीद जगाती ही हैं। तो अगर सभी पार्टियां साथ आकर लड़े तो
थोड़ी सी आशा जगती है। दूसरी बात कि खासकर पहाड़ में कम्युनिस्ट पार्टियों के पास
कोई बड़ा नेता रह नहीं गया। फिलहाल बी आर कौसवाल हैं, विद्या सागर नौटियाल चले
गए, कमलाराम नौटियाल थे वो
भयंकर रूप से बीमार चल रहे हैं [कॉ. कमलाराम नौटियाल का भी पिछले दिनों निधन हो
गया है (सं०)]। इसी के चलते आज कोई बड़ा नेता रह नहीं गया है। नौजवानों की ओर देखा
जाए तो वे करियर बनाने में लगे हुए हैं जो कि एक बड़ी समस्या है।
राज्य आंदोलन में उक्रांद
और उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी की बड़ी भूमिका रही। आज उक्रांद के टूटने से केन्द्र
की तरह ही उत्तराखंड में भी विकल्पहीनता की स्थिति पैदा हो गई है। इन हालातों में
उत्तराखंड के राजनीतिक भविष्य को किस तर से देखते हैं?
मंगलेश- चुनावी राजनीति का जो
भविष्य है वही भविष्य और हश्र उत्तराखंड का भी है। वैसे भी चुनावी राजनीति का
भविष्य होता ही क्या है। आने वाले किसी भी चुनाव में चाहे वो लोकसभा हो या किसी
राज्य के विधानसभा चुनाव या उत्तराखंड की ही बात करे तो सिर्फ स्थानीय फैक्टर ही
काम करेंगे। केन्द्र में तो बिना क्षेत्रीय दलों के सहयोग के कोई भी पार्टी सत्ता
में नहीं आ सकती। सपा, बसपा, बीजद, एआईडीएमके और टीएमसी की
भूमिका बढ़ती जायेगी। उत्तराखंड में बसपा और सपा जल्दी ही भूमिका निभाने के लिए
तैयार हो जायेंगी। जातिगत राजनीति के खिलाडि़यों का भविष्य वहां भी उज्जवल है। मैं
इसे उम्मीद की तरह नहीं बोल रहा हूं लेकिन ये आशंका है। कांग्रेस और भाजपा की अभी
भी उत्तराखंड में स्थिति मजबूत है। क्योंकि यहां इनका परंपरागत वोट बैंक जैसे कि
कांग्रेस का ब्राह्मण और भाजपा का ठाकुर खिसका नहीं है।
उत्तराखंड की मिट्टी से
जुड़े रचनाकारों का साहित्य में क्या योगदान रहा?
मंगलेश- उनका योगदान निश्चय ही
बहुत उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण है। आप सुमित्रा नंदन पंत से शुरू करें और चंद्र
कुंवर बड़थ्वाल, बृजेन्द्र लाल शाह, पीतांबर दत्त बड़थ्वाल, वीरेन डंगवाल और राजेश
सकलानी को देंखे या इनके अलावा और भी कई बड़े नाम है जैसे विद्या सागर नौटियाल हैं
इन सभी ने साहित्य में अभूतपूर्व योगदान दिया। कई ने तो नये मानदंड स्थापित किए।
आप चंद्र कुंवर बड़थ्वाल को देंखे वे पंत जी के समय में इतनी आधुनिक कविता लिख रहे
थे। आप अब पढ़ते हैं तो आपको आश्चर्य होता है कि उनकी इतनी आधुनिक दृष्टि उस समय
में थी। तो उत्तराखंड के लेखकों का योगदान बहुत ही ऐतिहासिक और प्रशंसनीय रहा है।
इसके अलाव जो आज भी लिख रहे हैं उत्तराखंड में जैसे कि सुभाष पंत, राजेश सकलानी, विजय गौड़ आदि अब भी काफी
उल्लेखनीय काम कर रहे हैं। मैं आपको बता दूं कि सिर्फ साहित्य लेखन ही नहीं इतिहास, जनजातीय और अन्य क्षेत्र
के लेखनों में भी पहाड़ के लोगों ने काफी योगदान दिया है। इसे इस तरह से समझ सकते
हैं कि उनके पास रचनाकर्म और संस्कृति की एक समृद्ध विरासत रही है। आप अगर गिनने
बैठे तो मनोहर श्याम जोशी, हिमांशु जोशी और पंकज
बिष्ट जैसे और भी सैंकड़ों नाम निकलते ही जायेंगे। लेकिन मैं आपको स्पष्ट कर दूं
कि इसका ‘उत्तराखंड’ नाम के इस नए पर्वतीय राज्य से कोई संबंध
नहीं है। ये सभी लोग इस राज्य गठन से बहुत पहले से लिख रहे हैं इसमें इसका कोई
योगदान नहीं है।
सुमित्रा नंदन पंत के
अलावा किस उत्तराखंड के कवि का योगदान सबसे ज्यादा रहा है?
मंगलेश- चन्द्रकुंवर बड़थ्वाल
बहुत बड़े कवि हैं। इससे पहले कुमाऊं में गुमानी, और
गढ़वाल में मौलाराम आदि भी हुए हैं।
वैसे स्पष्ट कर दूं कि मैं चन्द्र कुंवर बड़थ्वाल को पंत जी से ज्यादा बड़ा कवि
मानता हूं। बड़थ्वाल ज्यादा बड़े कवि हैं और कई मायनो में हमारे लिए ज्यादा जरूरी
हैं। इसके बाद लीलाधर जगूड़ी, वीरेन डंगवाल, राजेश सकलानी आदि का भी
महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
आपने चन्द्र कुवर बड़थ्वाल
जी का जिक्र किया। क्या आपको नहीं लगता कि उन्हें जो स्थान मिलना चाहिए था वो नहीं
मिला?
मंगलेश- इसके कई कारण रहे। पहला
तो ये कि उनका निधन काफी कम उम्र लगभग तीस-पैंतीस के रहे होंगे तभी हो गया था।
दूसरी बात ये कि वो पहले लखनऊ में थे फिर अपने गांव चले आए। यहां आए तो उन्हें
ट्यूबरोक्यूलोसिस हो गया। तब टीबी का कोई इलाज था नहीं। इसी के कारण उनकी मृत्यु
भी हुई। हां मैं मानता हूं कि उनकी उपेक्षा हुई । उनके संग्रह भी ज्यादा नहीं आ
पाए और आलोचकों ने उनपर उस समय ज्यादा विचार भी नहीं किया। उस समय छायावाद का जोर
था और बड़थ्वाल छायावाद से भी उभरकर आगे आ गये थे। निराला से पत्र व्यवहार था
उनका। उन्होंने छायावाद को तो लगभग छोड़ ही दिया था। उस समय निराला के अलावा सिर्फ
चन्द्र कुंवर बड़थ्वाल ही थे जिन्होंने मुक्त छंद का प्रयोग किया।
एक और नाम है जिनकी
उपेक्षा की गई, शैलेश मटियानी!
मंगलेश- शैलेश जी और मेरा तो
बहुत ही दोस्ताना संबंध रहा है। हां ये सच है कि उनकी उस समय काफी उपेक्षा की गई।
लेकिन पहाड़ के बड़े लेखकों में शामिल हैं। मनोहर श्याम जोशी, शैलेश मटियानी, विद्यासागर नौटियाल, राधाकृष्ण कुकरेती, रमाप्रसाद घिल्डियाल
पहाड़ी काफी लोग हैं जिन्होंने अच्छी कहानियां लिखी।
आप के शुरू के दो कविता
संग्रह ‘पहाड़ पर लालटेन’ और ‘घर का रास्ता’ को छोड़ दें तो आप पर आरोप
है कि आपकी बाद की कविताओं में पहाड़ पीछे छूटता गया।
मंगलेश- दरअसल हम जो देखना चाहते
हैं वो ढूंढ ही लेते हैं। ऐसा कुछ नहीं है जो आप कह रहे हैं। मेरा बाद का एक
संग्रह है ‘आवाज भी एक जगह है’ में पहाड़ की उपस्थिति
काफी है। इस संग्रह में पहाड़ के दो लोगों पर कविता है। एक ढोलवादक थे केशव
अनुरागी और एक लोककवि थे गुणानंद पथिक जो कि कम्युनिस्ट पार्टी के भी सदस्य थे।
गुणानंद जी वहां रामलीला आदि में भी हारमोनियम बजाया करते थे और मेरे पिता जी को
भी हारमानियम उन्होंने ही सिखाया था। उसमें मोहन थपलियाल की मृत्यु पर भी कविता
है। मोहन थपलियाल और पंकज बिष्ट दो उल्लेखनीय कहानीकार हैं पहाड़ के। मेरे इस संग्रह
में पहाड़ लौटा है फिर से और मेरा जो नया संग्रह आने वाला है उसमें भी पहाड़ की
अच्छी-खासी उपस्थिति देखने को मिलेगी आपको। लेकिन मैं एक बात मानता हूं कि मेरी
कवितओं में पहाड़ मसलन उस तरह नहीं आता है जिस तरह जगूड़ी या बड़थ्वाल जी की
कविताओं में है। इसका एक कारण ये है कि मेरी कविताओं में पहाड़ और मैदान का द्वंद
ज्यादा है। इसमें इन दोनों क्षेत्रों की टकराहट ज्यादा महत्व रखती है। जैसे पहाड़ी
नदी जब मैदान में आती है तो उसका बहाव अचानक रुक जाता है। आप ऋषिकेश जैसी जगहों पर
जाकर देखिए वहां गंगा का पहाड़ीपन मिटा नहीं है लेकिन उसका मैदानीपन शुरू हो जाता
है। तो जहां उसका पहाड़ीपन खत्म हो रहा है और मैदानीपन शुरू हो रहा है उस जगह के
पानी में एक अजीब सी टकराहट है। लगता है कि जैसे पहाड़ी जो पानी है वो उसी गति से
आगे बढ़ने के लिए जोर लगा रहा है लेकिन मैदानी भूगोल उसे रोक रहा है। यही अजीब सी
टेंशन है मेरी कविताओं में।
तो क्या यह आप ही के भीतर
जारी मैदान में पहाड़ी बने रहने का संघर्ष है?
मंगलेश- हां कहा जा सकता है कि
ये वही जिद है। लेकिन आपको बता दूं कि मैं देहरदून आ गया था 1980 के आस-पास और
देहरादून के बाद यहीं नीचे की ओर आता गया। उसके बाद तो पहाड़ जाता रहा लेकिन लौटा
नहीं। तो इस तरह का तनाव शायद मेरी कविताओं में है। एक और बात कि मेरी कविताओं में
पहाड़ के वर्तमान से ज्यादा उनकी स्मृति अधिक है। लेकिन स्मृति असल में कोई स्मृति
नहीं होती है। अतीत कोई अतीत नहीं होता। अतीत भी मनुष्य
का वर्तमान ही होता है क्योंकि उसके भीतर ही कहीं रहता है।
उत्तराखंड का फणीश्वरनाथ
रेणु किसे मानते हैं?
मंगलेश- हालांकि इस तरह की तुलना
करना मुझे पसंद नहीं है। लेकिन मैं कहना चाहूंगा कि शैलेश मटियानी जी का महत्वपूण
योगदान है। अगर ऐसी तुलना की जाय तो रेणु जी भी बिहार के शैलेश मटियानी होंगे।
अपने करीब किन रचनाकरों को
पाते हैं? किन युवा रचनाकारों में
संभावना देखते हैं?
मंगलेश- बहुत से लोग हैं जैसे कि
कवियों में प्रभात, व्योमेश शुक्ल, शिरीष कुमार मौर्य, नीलेश रघुवंशी, अनुज लगुन और मनोज कुमार
झा हैं। कहानीकारों में योगेन्द्र आहूजा और चंदन पांडे जैसे लोग हैं जो कि काफी
संभावनाशील हैं।
उत्तराखंड या पहाड़ शब्द
जब आपके कानों में पड़ता है तो ऐसे कौन से दृश्य या यादें हैं तो आज भी पहले की
तरह ताजा हैं और आंखों के सामने घूम जाती हैं?
मंगलेश- हालांकि
काफी अद्भुत प्रश्न है पर हां मेरे गांव की यादें है जो आज भी वैसे ही ताजा हैं।
जिनके दृश्य आज भी एकदम स्पष्ट हैं। जैसे पहला कि मैं अपने बचपन में गांव में बहुत
धूप सेंकता था। आज भी वही बिंब मेरे दिमाग में जिंदा है कि औंधा लेटे हुए अपनी पीठ
पर मैं सूर्य को महसूस कर रहा हूं। दूसरी मुझे वे बूढ़े याद हैं जो अपने चश्में से
बीड़ी सुलगाया करते थे। सूरज की धूप से वे जब बीड़ी सुलगा लेते थे तो ये मुझे बड़ा
चमत्कार लगता था कि अचनाक धुंआ कहां से उठने लग गया। तीसरा महिलाओं का घास-लकड़ी
लाना मेरी स्मृति में एकदम स्पष्ट है। जब शाम को मैं अपने पिताजी के साथ वापिस
लौटता था तो बीस-पच्चीस महिलाएं पूरा दल बना करके बोझा लिए हुए लौटती थीं। अब
चूंकि वो चप्पलें आदि नहीं पहने होती थीं तो उनके चलन से जो धम-धम की आवाज पैदा
होती थी वो आज भी मेरे भीतर मुझे महसूस होती है। वहीं से मुझे आज भी प्रेरणा मिलती
है कि अगर श्रम किया जाय तो धरती भी हिलती है। उस धम-धम की आवाज में मैं धरती को
हिलता हुआ महसूस करता था। पहाड़ की औरतें अथाह श्रम
करती हैं। इसी पर मैने एक कहानी लिखी थी जिसमें जब लड़की पहाड़ से शादी कर मैदान
आती है तो वो महीने भर तक सोती है। चूंकि मैने पाया कि उन्हें मैदान आकर ही अपनी
थकान उतारने का मौका मिल पाता है। इसी से मैंने सीखा और अपने जीवन में मैं लगातार
श्रम करता आया हूं। मैंने अपने जीवन में कभी मुफ्त की रोटी नहीं तोड़ी।
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Posted 17th April by patrakar Praxis से साभार